14 वर्ष की आहुति ने अपना पूरा मन बना लिया था कि अब वह घर में नहीं रहेगी, उसे अपने इस प्यारे से घर को छोड़कर जाना ही होगा। लेकिन कहाँ...? कैसे...? यह चिंता उसे सता रही थी। वह अपनी मम्मी से बहुत ज़्यादा प्यार करती थी और उन्हें यह दुख देना भी नहीं चाहती थी। वह जानती थी कि यह सदमा मम्मी के लिए जीवन का सबसे बड़ा दर्द बन जाएगा। लेकिन अब उसके पास यह घर छोड़ने के अलावा दूसरा कोई रास्ता भी तो नहीं है। तब उसने सोचा कि घर छोड़ने से पहले वह अपनी मम्मी के नाम एक पत्र लिखे ताकि वह उसके लिए कुछ ग़लत ना सोचें।
ऐसा सोचते हुए उसने पत्र लिखा, "मम्मा मुझे माफ़ कर देना, मैं यह घर छोड़ के जा रही हूँ। आप यह मत सोचना कि मैं कुछ ग़लत करने जा रही हूँ। यह भी मत सोचना कि मैं किसी लड़के के साथ भाग रही हूँ। मेरा कोई बॉयफ्रेंड नहीं है मम्मा। मैं अकेली ही जा रही हूँ। एक बहुत बड़ी तकलीफ आपको दे रही हूँ। आपसे दूर जा रही हूँ लेकिन आपसे वादा है कि मैं वापस ज़रूर आऊंगी। जैसी पवित्र आपके पास से जा रही हूँ वैसी ही वापस भी आ जाऊंगी। आप मेरा इंतज़ार करना, करोगी ना मम्मा? मुझ पर विश्वास रखना, रखोगी ना मम्मा?"
इस पत्र को लिखकर आहुति ने अपने तकिए के नीचे रख दिया और जाने के लिए तैयार होने लगी। स्कूल बैग में ही उसने कुछ कपड़े रख लिए। ऐसा करते हुए उसका मन घबरा रहा था और घर से बाहर क़दम रखने में उसके पांव कांप रहे थे, वह डर रही थी। अपनी इस बढ़ती उम्र से उसे डर लगने लगा था। कभी-कभी वह सोचती हम बड़े क्यों होते हैं? काश छोटी-सी गुड़िया की तरह ही रहते लेकिन यह सब संभव तो नहीं था। वह नहीं जानती थी कि छोटी-सी गुड़िया भी आजकल कहाँ सुरक्षित रह पाती है। उसके क़दम डर के कारण घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं दे रहे थे।
वह सोच रही थी कि जब घर में ही वह सुरक्षित नहीं है तो बाहर कैसे रह पाएगी। इस तरह के अनेक डरावने विचारों ने आहुति के मन और मस्तिष्क में तूफान मचा रखा था। कभी उसे कोई हैवान उसकी तरफ़ बढ़ता दिखाई देता और वह स्वयं भागती हुई नज़र आती और कभी किसी हैवान की गिरफ़्त में वह स्वयं को पाती। ऐसे भयानक ख़्यालों ने उसे डरा दिया और वह उसके निर्णय को अपने अंजाम तक नहीं पहुँचा पाई। अंततः उसने सोचा कि नहीं-नहीं इस तरह अपनी इज़्ज़त को जोखिम में डालकर वह कहीं नहीं जाएगी। परंतु वह असमंजस में थी कि क्या करे और अपनी इस उलझन को कैसे सुलझाए।
तभी उसे उसकी नानी पार्वती की याद आई जो गाँव में रहती थीं। आहुति को अब अपनी नानी से ही उम्मीद थी। उसने सोचा वह नानी को अपना राजदार बना लेगी, उन्हें सब कुछ बता देगी। फिर नानी से कहकर कहीं किसी भी हॉस्टल में रहकर पढ़ाई भी करेगी। मम्मी को दुख भी नहीं होगा और उन्हें कुछ पता भी नहीं चलेगा।
इन्हीं विचारों में खोई आहुति अपने घर से स्कूल पहुंच गई। उसे इस तरह उदास देखकर उसकी सहेली नीता ने उससे पूछा, "आहुति तुझे क्या हो गया है? आजकल तू कितनी उदास रहती है। कोई भी तकलीफ़ हो तो मुझे बता शायद मैं तेरी कोई मदद कर पाऊँ?"
आहुति उसके इस प्रश्न का भला क्या जवाब देती बात को टालते हुए उसने कहा, "नीता तुझे पता तो है मेरे पापा इस दुनिया में नहीं हैं बस कभी-कभी उनकी याद आ जाती है। "
आहुति अपने मन की वह बात किसी को भी कहाँ बता सकती थी। वह अकेली ही इस खतरे से निपटने की हिम्मत जुटा रही थी।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः